ध्यान क्या है? इस प्रसंग में ओशो का एक प्रसिद्ध वचन है- क्या तुम ध्यान करना चाहते हो? तो ध्यान रखना! ध्यान में न तो तुम्हारे सामने कुछ हो और न तुम्हारे पीछे ही कुछ हो। अतीत को मिट जाने दो और भविष्य का भी। स्मृति और कल्पना दोनों को शून्य हो जाने दो। फिर न तो समय होगा और न आकाश ही होगा। और जिस क्षण कुछ भी नहीं होता है, तभी जानना कि तुम ध्यान में हो। महामृत्यु का यह क्षण ही नित्य जीवन का क्षण भी है। ‘
लेकिन, अपने को अतीत और भविष्य से, स्मृति और कल्पना से शून्य कैसे करना? समय और आकाश का लीन होना तो ध्यान की चरम अवस्था है। वही तो निर्विचार और मौन है, समाधि और मोक्ष और निर्वाण है। ध्यान का आरंभ तो वह हो सकता है, जो ओशो द्वारा बताई गई अनेक ध्यान-विधियों का पहला या दूसरा चरण कहाता है। मिसाल के लिए ‘सक्रिय ध्यान’ में तीव्रतम सांस लेना, हाथ-पाँव उछालकर, चीख-चिल्लाकर शरीर और मन का रेचन करना आरंभ हो सकता है। जहाँ हम हैं, वहीं से तो हमें आरंभ करना है। 1
ध्यान चेतना की अंतर्यात्रा है, जिसमें चेतना बोधपूर्वक, बाहर से भीतर की ओर, परिधि से केंद्र की ओर, पर से स्वयं की ओर, अथवा दृश्य से द्रष्टा की ओर प्रतिक्रमण करती है। दूसरे शब्दों में, अस्तित्व का जो एक ही जीवंत क्षण है, जो अभी और यहीं है, और जिसमें समस्त जीवन समाया है, उससे संबद्ध और संपृक्त होना, उसमें ही होना ध्यान है।
इस ध्यान को साधने से चेतना निर्बंध और निर्बंथि, अखंड और अडोल, असंग और असीम अवस्था को उपलब्ध होती है। थोड़े शब्दों में ध्यान, समाधि और अंततः आत्मबोध का, परमात्मा का द्वार बनता है।
ओशो का यह भी कहना है कि यद्यपि मनुष्य और उसकी आध्यात्मिक समस्या बुनियादी रूप से समान है तो भी समय और स्थान बहुत भेद पैदा करते हैं। फिर प्रत्येक आदमी इतना अनूठा है, इतना अद्वितीय है कि उसे अपना ही अनूठा मार्ग भी चुनना होता है। इसलिए प्रत्येक युग में गुरु शिष्य को नींद से जागरण में, मृत्यु से अमृत में ले जाने के लिए नई-नई विधियाँ और उपाय आविष्कृत करते हैं। क्योंकि पुरानी विधियाँ, पुराने उपाय काम नहीं देते; और एक ही विधि भी सबके काम नहीं आ सकती। यही कारण है कि ओशो ने बहुत-सी नवीन विधियाँ
और उपाय खोजे हैं और वे चाहते हैं कि साधक प्रयोग और भूल की प्रक्रिया से गुज़रकर अपनी अपनी-अपनी विधि का चुनाव करें। इस संदर्भ में ओशो के ये वचन ध्यान में धर लेने योग्त हैं
‘बुद्ध और महावीर जिनको समझा रहे थे, वे बड़े सरल लोग थे। उनका कुछ दबा हुआ नहीं था, इसलिए उन्हें ध्यान में सीधे ले जाया जा सकता था। आप सीधे ध्यान में नहीं ले जाए जा सकते, आप बहुत जटिल हैं। आप उलझन हैं। एक पहले तो आपकी उलझन को सुलझाना पड़ेगा और आपकी जटिलता कम करनी पड़ेगी और आपके रोगों से थोड़ा छुटकारा करना पड़ेगा। टेंपरेरी ही सही। चाहे अस्थायी ही हो, लेकिन थोड़ी देर के लिए आपकी भाप को अलग कर देना जरूरी है-जो आपको उलझाए हुए है – तो आप ध्यान की तरफ मुड़ सकते हैं; अन्यथा आप नहीं मुड़ सकते।
‘इसलिए दुनिया की सारी पुरानी पद्धतियाँ ध्यान की, आपके कारण व्यर्थ हो गई हैं। आज उनसे कोई काम नहीं हो रहा। आपमें सौ में से कभी एकाध आदमी मुश्किल से होता है, जिसको पुरानी पद्धति पुराने ही ढंग से काम कर पाए । निन्यानबे आदमियों के लिए कोई पुरानी पद्धति काम नहीं कर पाती। उसका कारण यही नहीं कि पुरानी पद्धतियाँ गलत हैं; उसका कुल कारण इतना है कि आदमी नया है और पद्धतियाँ जिन आदमियों के लिए विकसित की गई थीं, वे पृथ्वी से खो गए। आदमी दूसरा है। यह जो इलाज है, वह आपके लिए विकसित नहीं हुआ था। आपने इस बीच नई बीमारियाँ इकट्ठी कर ली हैं।
‘तीन हजार, चार हजार, पाँच हजार साल पहले ध्यान के जो प्रयोग विकसित हुए थे, वे उस आदमी के लिए थे, जो मौजूद था। वह आदमी अब नहीं है। उस आदमी का जमीन पर कहीं कोई निशान नहीं रह गया है। अगर कहीं दूर जंगलों में थोड़े-से लोग मिल जाते हैं, तो हम उनको जल्दी से शिक्षित करके सभ्य बनाने की पूरी कोशिश में लगे हैं और हम सोचते हैं, हम बड़ी कृपा कर रहे हैं, उनकी सेवा करके।
‘आदमी जैसा आज है, ऐसा आदमी जमीन पर कभी भी नहीं था । यह बड़ी नई घटना है। और इस नई घटना को सोचकर ध्यान की सारी पद्धतियों में रेचन, कैथार्सिस का प्रयोग जोड़ना अनिवार्य हो गया है। इसके पहले कि आप ध्यान में उतरें, आपका रेचन हो जाना जरूरी है, आपकी धूल हट जानी जरूरी है । ‘
प्रस्तुत ‘ओशो ध्यान योग’ में ओशो के पूरे साहित्य से ध्यान-विधियों तथा ध्यान-साधना-सामग्री का संचयन किया गया है। इस पुस्तक से एक बड़ी जरूरत की पूर्ति हो रही है। आनंद मैत्रेय
ओशो ध्यान योग : 8